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"एक प्रचलित कहावत है कि महापुरुष किसी परम्परागत पथ पर नहीं चलते बल्कि वह अपना लक्ष्य और पथ स्वयं तय करते हैं।"

यही पथ आने वाली पीढ़ियों के लिए एक आदर्श पथ के रूप में स्थापित हो जाता है। आजकल तो युवा वर्ग विदेश जाने और वहाँ पर काम करने की ख्वाहिश से ही पढ़ाई कर रहा है। आज से करीब 50 वर्ष पूर्व एक युवक ने विपरीत दिशा में यात्रा की, तब वह युवक 29 वर्ष का था और उपलब्धियों भरे 13 वर्ष इंग्लैंड में बिता चुका था। उस समय कैम्ब्रिज विश्वविद्यालय भौतिकशास्त्र के क्षेत्र में सर्वश्रेष्ठ स्थान माना जाता था। वहाँ पर इस युवक ने न केवल पढ़ाई की बल्कि कार्य भी करने लगा था। जब अनुसंधान के क्षेत्र में इस युवक के उपलब्धियों भरे वर्ष बीत रहे थे तभी स्वदेश लौटने का अवसर आया। तब इस युवक ने अपने वतन भारत में रहकर ही कार्य करने का निर्णय लिया। उसे सिर्फ अपनी काबिलियत के दम पर प्रतिष्ठा पाने की इच्छा नहीं थी बल्कि उसके मन में अपने देश में विज्ञान और प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में एक क्रांति लाने का जुनून था। यह युवक कोई और नहीं, हमारे देश में परमाणु कार्यक्रम के सूत्रधार डॉ. होमी जहाँगीर भाभा थे। यह डॉ. भाभा के उत्सर्गिक प्रयासों का ही प्रतिफल है कि आज विश्व के सभी विकसित देश भारत के नाभिकीय वैज्ञानिकों की प्रतिभा एवं क्षमता का लोहा मानने लगे हैं।

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होमी जहाँगीर भाभा का जन्म बंबई के एक सम्पन्न पारसी परिवार में 30 अक्टूबर 1909 को हुआ था। उनके पिता जे. एच. भाभा बंबई के एक प्रतिष्ठित बैरिस्टर थे। आज भारत में लगभग दो लाख पारसी हैं। ईसा की सातवीं शताब्दी में इस्लाम ने जब ईरान पर कब्जा कर लिया, तो अपने धर्म की रक्षा के लिए तमाम पारसी परिवार भागकर भारत चले आए थे। तब से ये भारत में ही हैं और भारत को ही अपना वतन मानते हैं। पारसी समाज ने बड़े योग्य व्यक्तियों को जन्म दिया है। डॉ. भाभा पढ़ाई में बचपन से ही तेज थे। 15 वर्ष की आयु में उन्होंने बंबई के एक हाईस्कूल से सीनियर कैम्ब्रिज की परीक्षा सम्मानपूर्वक पास की, बाद में उच्च शिक्षा के लिए कैम्ब्रिज विश्वविद्यालय गए। वहाँ भी उन्होंने अपनी असाधारण प्रतिभा का परिचय दिया।

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डॉ. भाभा जब कैम्ब्रिज में अध्ययन और अनुसंधान कार्य कर रहे थे और छुट्टियों मे भारत आए हुए थे तभी सितम्बर 1939 में द्वितीय विश्व युद्ध छिड़ गया। यह वही दौर था जब हिटलर पूरे यूरोप पर तेजी से कब्जा करता जा रहा था और इंग्लैंड पर धावा सुनिश्चित दिखाई पड़ रहा था। इंग्लैंड के अधिकांश वैज्ञानिक युद्ध के लिये सक्रिय हो गए और पूर्वी यूरोप में मौलिक अनुसंधान लगभग ठप्प हो गया। ऐसे हालात में इंग्लैंड जाकर अनुसंधान जारी रखना डॉ. भाभा के लिए संभव नहीं था। ऐसी परिस्थिति में डॉ. भाभा के सामने यह प्रश्न स्वाभाविक था कि वे भारत में क्या करें? उनकी प्रखर प्रतिभा से परिचित कुछ विश्वविद्यालयों ने उन्हें अध्यापन कार्य के लिये आमंत्रित किया। अंततः डॉ. भाभा ने भारतीय विज्ञान संस्थान (IISc) बैंगलोर को चुना जहाँ वे भौतिक शास्त्र विभाग मे प्राध्यापक के पद पर पदस्थ हुए। यह उनके जीवन का महत्वपूर्ण परिवर्तन साबित हुआ। डॉ. भाभा को उनके कार्यों में सहायता के बतौर सर दोराबजी टाटा ट्रस्ट ने एक छोटी-सी राशि भी अनुमोदित की। डॉ. भाभा के लिए कैम्ब्रिज की तुलना में बैंगलोर में काम करना आसान नहीं था। कैम्ब्रिज में वे सरलता से अपने वरिष्ठ लोगों से सम्बंध बना लेते थे परंतु बैंगलोर में यह उनके लिए चुनौतीपूर्ण था। उन्होंने अपना अनुसंधान कार्य जारी रखा और धीरे-धीरे भारतीय सहयोगियों से संपर्क भी बनाना शुरू किया। उन दिनों भारतीय विज्ञान संस्थान, बैंगलोर में सर सी. वी. रामन भौतिक शास्त्र विभाग के प्रमुख थे। सर रमन ने डॉ. भाभा को शुरू से ही पसंद किया और डॉ. भाभा को 'फैलो आफ रायल सोसायटी' (FRS) में चयन हेतु मदद की।

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यद्यपि बैंगलोर में डॉ. भाभा कॉस्मिक किरणों के हार्ड कम्पोनेंट पर उत्कृष्ट अनुसंधान कार्य कर रहे थे परंतु वे देश में विज्ञान की उन्नति के बारे में चिंतित थे। उनकी चिंता का मूल विषय था कि क्या भारत उस गति से प्रगति कर रहा है जिसकी उसे जरूरत है? देश में वैज्ञानिक क्रांति लाने का जो सपना उनके मन में था उसे पूरा करने के लिए बैंगलोर का संस्थान पर्याप्त नहीं था। अतः डॉ. भाभा ने नाभिकीय विज्ञान के क्षेत्र में विशिष्ट अनुसंधान के लिए एक अलग संस्थान बनाने का विचार बनाया और सर दोराबजी टाटा ट्रस्ट से एक बार फिर मदद माँगी। यह सम्पूर्ण भारतवर्ष के लिए वैज्ञानिक चेतना एवं विकास का एक निर्णायक मोड़ था।

सन् 1945 में द्वितीय विश्वयुद्ध समाप्त हो गया था और दुनिया भर के वैज्ञानिक अपने रुके हुए अनुसंधान को गतिमान बनाने में जुट गए। 1 जून 1945 को डॉ. भाभा द्वारा प्रस्तावित 'टाटा इंस्टीट्यूट आफ फंडामेंटल रिसर्च (TIFR)' की एक छोटी-सी इकाई का श्रीगणेश हुआ। 6 महीने बाद ही भाभा जी ने इसे मुम्बई में स्थानांतरित करने का विचार बनाया। अब समस्या यह थी कि इस नए संस्थान के लिए इमारत इत्यादि की व्यवस्था कैसे हो? उस समय संस्थान के नाम पर टाटा ट्रस्ट से 45,000 रूपये, महाराष्ट्र सरकार से 25,000 रूपये तथा भारत सरकार द्वारा 10,000 रूपये प्रतिवर्ष की धनराशि निर्धारित की गई थी। डॉ. भाभा ने पेडर रोड में 'केनिलवर्थ' की एक इमारत का आधा हिस्सा किराये पर लिया। यह इमारत उनकी चाची श्रीमती कुंवर पांड्या की थी। संयोगवश डॉ. भाभा का जन्म भी इसी इमारत में हुआ था। TIFR ने उस समय इस इमारत के किराए के रूप में हर महीने 200 रुपये देना तय किया था। हालांकि उन दिनों यह संस्थान काफी छोटा था। कर्मचारियों के तरोताजा होने के लिए चाय की दुकान संस्थान से लगभग एक किलोमीटर की दूरी पर थी। अतः दयामयी श्रीमती पांडया ने कर्मचारियों की चाय अपने रसोई में ही बनाने की इजाजत दे दी। हाँ, एक बात जरुर थी कि वह अपने प्रिय भतीजे डॉ. भाभा को अपने हाथों से चाय बनाकर पिलाया करतीं थीं। आज उस दो मंजिली पुरानी इमारत की जगह एक बहुमंजिली इमारत ने ले ली है जो अब मुख्यतः भाभा परमाणु अनुसंधान केंद्र के अधिकारियों का निवास स्थान है। यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि विश्व ने परमाणु ऊर्जा के स्वरूप को तब जाना जब द्वितीय विश्वयुद्ध के दौरान हिरोशिमा एवं नागासाकी शहरों पर बम गिराया गया। तब लोगों के मन में यह डर बैठ गया कि परमाणु ऊर्जा एवं परमाणु बम वास्तव में एक ही हैं परंतु डॉ. भाभा ने परमाणु ऊर्जा के जनहित अनुप्रयोग को पहले ही भाँप लिया था। यह डॉ. भाभा की दूरदर्शिता का ही परिणाम था कि स्वतंत्रता पूर्व ही उन्होंने नेहरू जी का ध्यान इस ओर आकर्षित कर लिया था कि स्वतंत्र भारत में किस तरह परमाणु ऊर्जा उपयोगी सिद्ध होगी।

सन् 1949 तक केनिलवर्थ स्थित संस्थान छोटा पड़ने लगा था। अतः इस संस्थान को प्रसिद्ध 'गेटवे ऑफ इंडिया' के पास एक इमारत में पहुँचा दिया गया जो उस समय 'रायल बाम्बे यॉट क्लब' के अधीन थी। हालांकि संस्थान का कुछ कार्य तब भी केनिलवर्थ में कई वर्षों तक चलता रहा। आज भी 'परमाणु ऊर्जा आयोग' का कार्यालय 'गेटवे ऑफ इंडिया' के पास इसी इमारत 'अणुशक्ति भवन' में कार्यरत है जो 'ओल्ड यॉट क्लब' (OYC) के नाम से जाना जाता है। संस्थान का कार्य इतनी तेजी से आगे बढ़ने लगा था कि 'ओल्ड यॉट क्लब' की जगह भी जल्दी ही कम पड़ने लगी। अतः डॉ. भाभा पुनः जगह की तलाश में लग गए। इस बार वह ऐसी जगह चाहते थेजहाँ संस्थान की एक स्थायी इमारत बनायी जा सके। इस बार डॉ, भाभा की नजर कोलाबा के एक बहुत बड़े भूखंड पर पड़ी जिसका अधिकांश हिस्सा रक्षा मंत्रालय के कब्जे में था। कोलाबा का यह क्षेत्र करीब 25,000 वर्ग मीटर के क्षेत्रफल में फैला हुआ था। द्वितीय विश्वयुद्ध के समय की अनेक छावनियों से घिरे इस इलाके के बीच एक अनुसंधान दल पहुँच गया।

डॉ. भाभा ने अपनी वैज्ञानिक और प्रशासनिक जिम्मेदारियों के साथ-साथ TIFR की स्थायी इमारत का भी जिम्मा उठाया। भाभा ने इसे विश्व के सर्वश्रेष्ठ संस्थानों की बराबरी में खड़ा करने का सपना संजोया। उन्होंने अमेरिका के जाने-माने वास्तुकार को इसकी योजना तैयार करने के लिये आमंत्रित किया। इसकी इमारत का शिलान्यास 1954 में नेहरू जी ने किया। डॉ. भाभा ने इमारत निर्माण के हर पहलू पर बारीकी से ध्यान दिया। अंततः 1962 में इस इमारत का उद्घाटन नेहरू जी के कर कमलों द्वारा संपन्न हुआ। सन् 1966 में डॉ. भाभा के अकस्मात निधन से देश को गहरा आघात पहुँचा। यह तो उनके द्वारा डाली गई नींव का असर था कि उनके बाद भी देश में परमाणु ऊर्जा कार्यक्रम अनवरत विकास के मार्ग पर अग्रसर रहा। डॉ. भाभा के उत्कृष्ट कार्यों के सम्मान स्वरूप तत्कालीन प्रधानमंत्री श्रीमती इंदिरा गाँधी जी ने परमाणु ऊर्जा संस्थान, ट्रॉम्बे (AEET) को डॉ. भाभा के नाम पर 'भाभा परमाणु अनुसंधान केंद्र' नाम दिया। आज यह अनुसंधान केन्द्र भारत का गौरव है और विश्व-स्तर पर परमाणु ऊर्जा के विकास में पथप्रदर्शक साबित हो रहा है।

आज भारत को विकसित देशों की श्रेणी में ला खड़ा करने वाले इस महापुरुष के प्रति सच्ची श्रद्धांजलि यही होगी कि हम उनके सपनों के परमाणु ऊर्जा कार्यक्रम के विकास की दिशा में अपना संपूर्ण योगदान दें। यह तथ्य निर्विवाद है कि संघर्षपूर्ण परिस्थितियाँ हमारी योजना एवं क्षमता में अभूतपूर्व शक्ति का संचार करती हैं। जिस योजना की कार्यशैली डॉ. होमी जहाँगीर भाभा की वैज्ञानिक आभा से प्रकाशमान हो तो उसकी सफलता और उपलब्धियों का जयगान विश्व के नाभिकीय क्षितिज में अवश्वमेव गूँजेगा। आत्मनिर्भरता हमारी शक्ति है और चुनौतियों से निपटना हमारी आदत में शुमार हो चुका है।


(भाभा परमाणु अनुसंधान केंद्र, मुम्बई की गृह-पत्रिका "ऊर्जायन" से साभार)


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